Wednesday, April 1, 2020

हमें डर नहीं लगता...


हाँ हमें डर नहीं लगता...
अगर डर लगता तो आपके शहर में जहां हम रहते हैं, वहाँ इंसान तो नहीं रह सकतें।
अगर डर लगता तो जिन कारखानों, जिन जगहों में,
हम जो काम करते हैं, वह कभी न कर पाते।
आपकी कोठियों में जो सीसा चमकता है, खिड़कियों, टेबिल और गुलदस्तानों में,
काम करते हुये वही सीसा तो रोज हम अपनी साँसों में भरते है,
शाम को पेट की भूख मिटाने के लिए।
हाँ हमें डर नहीं लगता...
अगर डरते तो इन ऊंची-ऊंची इमारतों में, पुलों पर, सड़कों पर
बिना सुरक्षा के भी कैसे हम काम करते।
बैंक में पैसा नहीं हो, घर में खाना नहीं हो तब भी हमें डर नहीं लगता।
हमें तो भूख लगती है, और भूख डर से नहीं पसीना बहाकर काम करने से मिटती है।
हाँ हमें डर नहीं लगता...
आपने कह रहे हैं ये कौन हैं, जो सैकडों किमी॰ सर पे बोझ लेकर पैदल ही चल पड़े।  
सच में.. हमें नहीं पता कितना बोझ लेकर और कितनी दूर पैदल जाना चाहिए।
क्योंकि हम तो पैदा होते ही गरीबी का बोझा लेकर ही चलने लगते हैं। 
और हम तो पीढ़ियों से चल रहें हैं इसलिए पता ही नहीं, पैदल चलने में थक जाते हैं।  
इसलिए हाँ हमें डर नहीं लगता...
हम किन्ही सपनों को पूरा करने या कुछ पाने के लिए नहीं,
हम तो सिर्फ भूख मिटाने शहर आए थे,
और अब भूख के कारण ही लौट कर जा रहें हैं।

सादर,
डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया

गाँव तू फिर याद आया…



गाँव तू फिर बहुत याद आया है....
अभी-अभी तो मैं तुझे बहुत बुरा-भला कहके, तुझसे मुंह फेरकर शहर आया था।
मुझे याद है, जाते हुये मैंने ही तुझसे अपने हाथ को छुड़ाया था।
हाँ ये भी मुझे याद है जाते हुए मैं नहीं तू उदास था।
सच कहूँ जब से आया हूँ शहर ने हाथ लगाना तो छोड़, आँख भर देखा भी नहीं।
गाँव तू फिर बहुत याद आया है....
मुझे याद है कितनी भी बड़ी परेशानी हो तू कभी किसी को जाने के लिए नहीं कहता।
तू कभी अपनों को ऐसा अकेला बेबस सड़कों पर कभी नहीं छोड़ता,
तू हमेशा यही तो कहता है मत चिंता कर, यह समय भी चला जाएगा।
गाँव तू फिर बहुत याद आया है....
तू उस माँ की तरह ही तो है, जिसे आखिर सांस तक बच्चों की ही फिकर बनी रहती है।
लाख परेशानी हो, तेरे बस में हो या न हो,
हमारी कमियों के बाद भी तू हमें छोड़ता नहीं,
और ज़िंदगी लुटाने के बाद भी शहर है कि अपनाता ही नहीं। 
गाँव तू फिर बहुत याद आया है....

सादर,
डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया

Tuesday, September 4, 2018


लघु कथा – जन्माष्टमी विशेष
कनफ्यूजन
आजकल के माँ-बाप जीवन, सत्य, धर्म आदि बातों में कनफ्यूज ही रहते हैं, और बच्चों को भी कनफ्यूज किए रहते हैं... कल जैसे ही जन्माष्टमी पर मम्मी ने राहुल को कृष्ण जी की पोशाक और आभूषण पहनाए तो राहुल से रहा नहीं गया और वह बोल ही पड़ा मम्मा-पापा आप लोग डिसाइड क्यों नहीं कल लेते की मुझे बनाना क्या है? पापा थोड़ा आश्चर्य से पूछते हैं, क्या मतलब है तुम्हारा? राहुल कहता है- पापा आप लोग हर साल मुझे जन्माष्टमी पर कृष्णजी बनाकर खुश होते हो, पर हमेशा मुझसे भगवान राम जी की तरह मर्यादा और आज्ञाकारिता की अपेक्षा करते हो। अब आप ही बताओ जो आप बनाते हैं मैं उनकी तरह (कृष्ण) विचार,व्यवहार करूँ, या जो आप मुझे नहीं बनाते पर अपेक्षा वैसे (राम) बनने की करते हो, उनकी तरह बन जाऊँ। प्लीज आप लोग डिसाइड कर लीजिए क्योंकि आप लोग की तरह जीवन भर कनफ्यूज रहते हुये मैं कहीं बहरूपिया न बन जाऊ। दिखने मैं कुछ और हकीकत में कुछ।   

Tuesday, April 24, 2018


"व्यक्तित्व निर्माण और सीखने की प्रक्रिया में गैर-तार्किक, निरर्थक, अनुपयोगी बातों एवं गतिविधियों का महत्व"

डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया
·         क्यों फालतू के काम कर रहे हो?
·         ज्यादा मत बोला करे?
·         ये क्या बकबास है?
·         बेमतलब/फ़िजूल कि बातें मत किया करो?
अक्सर वयस्कों द्वारा बच्चों को डाटते हुये इन वाक्यो को सुना जा सकता है। मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य का व्यवहार और जीवन तर्क और भावना दोनों का समिश्रण है, मनुष्य के लिए तर्क और भावना दोनों की ही आवश्यकता है। समाजीकरण और व्यक्तित्व निर्धारण में सार्थक के साथ निरर्थक, उपयोगी के साथ अनुपयोगी सभी प्रक्रियाओं एवं गतिविधियों कि आवश्यकता होती है। बच्चों के 0-5 वर्ष प्रारम्भिक दौर को देखे तो हम समझ सकते हैं कि बच्चों का अधिकांश समय गैर-तार्किक एवं अनुपयोगी कार्यो में व्यतीत होता है। बच्चों की यह गैर-तार्किक, अनुपयोगी गतिविधियां ही उनके सीखने की प्रक्रिया को संचालित करती हैं।
बच्चे की प्रारम्भिक भाषा गैर-तार्किक और बेतुक ध्वनियों और आवाजों से ही प्रारम्भ होती है, जो आगे चलकर एक स्पष्ट भाषा का रूप ले लेती है। बच्चों की खेल गतिविधियां सफलता या किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ना होकर सिर्फ आनंदित होने के लिए होती हैं। अपने आस-पास बच्चों को स्वतंत्र रूप से व्यवहार करते हुये देखे, तो बच्चे सामान्य रूप से बेतुकी आवाजों को निकालते हुये चिल्ला रहे होते हैं। खेलते हुये वह बेतरतीब तरीके से कूदते हुये दौड़ रहे होते हैं। बच्चों की इन गैर-तार्किक और बेतुकी बातों और गतिविधियों को तर्क और अनुशासन के आधार पर वयस्कों को समझ पाना अक्सर ही कठिन होता है। 
      निराशा, असफलता और तनाव तीव्र गति से दौड़ते आज के उत्तर-आधुनिक समाज के कुछ समान्य शब्द हैं। वैसे तो इन शब्दों से मानव अपने जीवन काल में कई बार आमना-सामना करता ही रहता है पर आज के युवा खासकर बच्चे और किशोर तनाव का कुछ ज्यादा ही सामना कर रहे हैं।
      बच्चों एवं किशोरावस्था में व्याप्त इस बैचेनी और तनाव का जब सूक्ष्म विश्लेषण करे तब समाज की दो प्रमुख सामाजिक संस्थाएँ इसके लिए उत्तरदायी समझ आती हैं। परिवार और स्कूल दो प्रमुख सामाजिक संस्थाएँ हैं जो बच्चों के समाजीकरण और ज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया को मुख्य रूप से संचालित करती हैं। इन दोनों संस्थाओं की प्रक्रियाओ और गतिविधियों देखे तो हम जान सकते हैं कि आज स्कूल और परिवार दोनों ने अपने आप को इस प्रकार संरचित कर लिया है, जिसमें बच्चों/किशोरों के लिए व्यक्तिगत रूचि, स्वतन्त्रता, और मनोगत रचनात्मकता के अवसर बहुत कम ही मिल पाते हैं। स्कूल के पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम और नियमों के द्वारा बच्चे 6-7 घंटे रोज व्यतीत करते हैं। स्कूल में होने वाली प्रार्थना से लेकर अंतिम घंटे तक बच्चे शिक्षक या स्कूल के निर्देशों का पालन कर रहे होते हैं। स्कूल के इन 6-7 घंटो में मौलिक अभिव्यक्ति, सहभागिता बमुश्किल ही बच्चों को मिल पाती है।
      "बच्चों की आवाज व अनुभवों को कक्षा में अभिव्यक्ति नहीं मिलती। प्रायः केवल शिक्षक का स्वर ही सुनाई देता है। बच्चे केवल अध्यापक के सवालों का जवाब देने के लिए या अध्यापक के शब्दों को दोहराने के लिए ही बोलते हैं। कक्षा में वे शायद ही कभी स्वयं कुछ करके देख पाते हैं। उन्हें पहल करने के अवसर भी नहीं मिलते हैं। किताबी ज्ञान को दोहराने की क्षमता के विकास के बजाए पाठ्यचर्या बच्चों को इतना सक्षम बनाए कि वे अपनी आवाज ढूँढ सकें, अपनी उत्सुकता का पोषण कर सकें, स्वयं करें, सवाल पूछें, जाँचें-परखें और अपने अनुभवों को स्कूली ज्ञान के साथ जोड़ सकें।" (एनसीएफ़ 2005) 
      फ्रेंच दार्शनिक फूकोस्कूल को जेल, फैक्ट्री और अस्पताल के समतुल्य रखते हैं और बताते हैं कि अनुशासन, शक्ति और सत्ता के अभ्यास का साधन है जिसमें तरह-तरह के उपकरण सम्मिलित रहते हैं। इनका उद्देश्य विनम्र शरीरऔर आज्ञाकारी चेतना’* का विकास करना होता है।
      कुछ समय पहले तक बच्चे घर आकर स्कूल के इस अति अनुशासन और तनाव के माहौल को भूल जाते थे, क्योकि घर में वे अपने मन का व्यवहार करते हुये वे वह सब कर सकते थे जो उन्हें आनंदित करे ऊर्जावान करे।  घर/परिवार स्कूल के अनुशासन और तनाव को कम करने हेतु एक सेफ़्टी वाल्ब की तरह काम करते थे। पर अति प्रतियोगिता आधारित इस समय में जहां आर्थिक रूप सफल होना ही अंतिम लक्ष्य है, घर को भी स्कूल/कालेज के उप केंद्र बना दिया है। अभिभावकों की अंतहीन अपेक्षाएँ बच्चे की मौलिक अभियक्ति की संभावनाएं समाप्त कर देती हैं।     घरों में भी बच्चों को अनुशासित रहते हुये वही सब करने का आदेश अभिभावकों द्वारा पारित किया जाता है, जो आने वाले समय में आर्थिक रूप से सफल करा सके। अगर स्कूल और घर की प्रक्रियाओं का सूक्ष्म अवलोकन करे तो दोनों में एक बड़ी समानता देखने को मिलती है, वह हैं सिर्फ और सिर्फ सार्थक कार्यो हेतु अति आग्रह। इन स्कूल और अभिभावक आज बच्चों से अपेक्षा करते हैं की बच्चे सिर्फ ऐसे सार्थक कार्यो और बातों में संलग्न रहे जिनसे उन्हे भविष्य में सफलता प्राप्त हो सके। स्कूल और घर ने बच्चों को अपने मन के निरर्थक, बेतुके, अनुपयोगी, कार्यो और खेल गतिविधियों को समाप्त करने पर तुले हुये हैं। बड़ों को लगता है की यह सब जो बच्चे कर रहे है वह सब अनुपयोगी है और बच्चे समय खराब कर रहे हैं।
       "बच्चे उसी वातावरण में सीख सकते हैं जहाँ उन्हें लगे कि उन्हें महत्वपूर्ण माना जा रहा है। हमारे स्कूल आज भी सभी बच्चों को ऐसा महसूस नहीं करवा पाते। सीखने का आनन्द व संतोष के साथ रिश्ता होने की बजाए भय, अनुशासन व तनाव से संबंध हो तो यह सीखने के लिए अहितकारी होता हैं।" (एनसीएफ़ 2005)
      बच्चे क्या अगर वयस्क भी अपने व्यवहार को स्वःअवलोकित करें, तो जान सकते हैं कि वयस्क भी अपने दैनिक व्यवहार और गतिविधियों में गैर-तार्किक और अनुपयोगी कार्यो को करते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मानसिक संतुलन और व्यक्तित्व स्थायित्व हेतु तर्क और अनुशासन के साथ-साथ गैर-तार्किक, अनुपयोगी कार्यो काभी अपना विशेष महत्व है। बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को संचालित करते समय स्कूल, अभिभावक, समाज यह भूल जाते हैं, कि अति अनुशासन और अतिसंरचित नियम एवं गतिविधियां नकारात्मक रूप से व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। इस प्रकार के वातावरण में बच्चे अपनी मौलिक अभियक्ति को खो देते है, और उनकी प्रश्न करने, जिज्ञासा करने की प्रवृति क्षीण होने लगती है।
      कुछ दशक पूर्व स्कूलों और अभिभावकों ने बच्चों को स्वाभाविक खेल-कूद और आनंदित होने के अवसर से दूर करने के लिए एक्टिविटी क्लास के रूप में एक नयी अवधारणा को जन्म दिया। स्कूल या बच्चों के पेशेवर क्लब में एक्टिविटी क्लास के अंदर व्यक्तित्व विकास के नाम पर खेल, संगीत, गायन, डांस, चित्रकारी, घुड़सवारी, तैराकी आदि गतिविधियों को संचालित किया जाता है। वयस्कों को लगता है कि इन एक्टिविटी क्लास में बच्चों के का मनोरंजन होता है और एक नए कौशल को वह सीख रहे है जिनसे उनके व्यक्तित्व में निखार होगा।
      वयस्क बालमन से संबन्धित एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते है। बच्चे उन्हीं गतिविधिओं को करते हुये आनंदित महसूस करते हैं जिनका चयन वे अपने द्वारा करते है। बच्चों के स्वाभाविक चयन की बजाय वयस्कों/स्कूल द्वारा दी गयी खेल या अन्य गतिविधि बच्चों को एक पाठ्य कक्षा की भांति लगती है। बिना मन के तैराकी, संगीत या खेल गतिविधि उन्हे गणित या विज्ञान की क्लास की भांति अरुचिकर ही लगती है।  
      सीखने के प्रारम्भिक 5-7 वर्षो में बच्चे केवल उन्हीं गतिविधियों में पूर्णता से सहभागी हो पाते हैं, जिनमें उन्हें आनंद प्राप्त होता है। बच्चे किसी भी कार्य को उपयोगी/लाभकारी होने के आधार पर नहीं करते हैं, बल्कि बच्चों के किसी कार्य, गतिविधि या खेल को चुनने का एकमात्र आधार उन्हें प्राप्त होने वाला आनंद होता है।  अगर बच्चों को अनुशासन, भय से किसी भी प्रकार की गतिविधि में बिना उनके अन्तर्मन से सम्मिलित किया जाता है, तब सीखने प्रक्रिया तो बाधित होती ही बच्चों के व्यक्तित्व पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
      यदि अभिभावक और स्कूल बिना तनाव, अवसाद या दमन के समाजीकरण और ज्ञान अर्जित करने की प्रक्रिया को सम्पन्न करना चाहते हैं, तब उन्हे घर एवं स्कूल में इस अति-संरचित, अति-अनुशासित, अति-सार्थक आग्रही व्यवस्था को परिवर्तित करना होगा। बच्चों को शिक्षण प्रक्रिया एवं घर में ऐसे अवसर उपलब्ध कराने होंगे, जिनमें बच्चे अपनी भावनाओं, इच्छाओं को मौलिक रूप से अभिव्यक्त कर पाएँ। विभिन्न शोध से यह ज्ञात हुआ है कि बच्चे हो या वयस्क तभी अपनी उच्च क्षमताओं को प्रदर्शित कर पाते हैं, जब उन्हें कार्य करने हेतु या सीखने हेतु ऐसा वातावरण उपलब्ध कराया जाता है, जिसमें वे मौलिक रूप से अपनी भावनाओं, इच्छाओं, विचारों, दृष्टिकोण आदि को प्रदर्शित कर पाते हैं।
       स्कूल की पाठ्यचर्या को बनाते समय विभिन्न विषयों के कक्षाओं के साथ-साथ बच्चों की मौलिक अभिव्यक्ति हेतु अनिवार्य रूप में विशेष समय उपलब्ध कराना होगा। जिस प्रकार संसद की कार्यवाही में एक शून्य काल को सम्मिलित किया गया है। उसी प्रकार स्कूल के दिन भर की समय-सारिणी में एक कक्षा शून्य कक्षा/काल घोषित किया जाए, जिसमें बच्चे अपने उन सभी  सभी बेतुके, बेमतलब मौलिक प्रश्न पूछ पाये, समुंदर की लहरों की भांति हर क्षण उत्पन्न होने वाली अपनी अंतहीन जिज्ञासाओं को पूरा कर पाए।
स्कूल की इस शून्य-कक्षा में बच्चों को चिल्लाने, बोलने, नाचने सहित वह सभी अतार्किक बातों को करने की छूट होनी चाहिए, जिनको वह समान्य विषयगत कक्षाओं और स्कूल की दिनचर्या में नहीं कर पाते हैं। स्कूल के साथ ही साथ अभिभावकों को भी घर पर ऐसे अवसर उपलब्ध कराने होंगे जिनमें बच्चे अपनी मौलिक अभिव्यक्ति का प्रदर्शन कर सके। घर को पुनः उस सेफ़्टी वाल्ब की भांति कार्य करना होगा जिसमें बच्चे वाह्य समाज के द्वारा और शैक्षिक प्रक्रिया से उत्पन्न तनाव को भूल कुछ कम कर सके।  
आज समाज, स्कूल और अभिभावकों का यह अनिवार्य दायित्व है कि बच्चों को तनाव, अवसाद आदि से बचाने हेतु घर और स्कूल की इस अति-संरचित, अति-अनुशासित, अति-सार्थक आग्रही व्यवस्था में कुछ समय बच्चों को मौलिक अभिव्यक्ति हेतु प्रदान करना होगा। व्यक्तित्व निर्माण और सीखने की प्रक्रिया में तार्किक, अनुशासित और व्यवस्थित प्रक्रियाओंएवं बातों के साथ-साथ जीवन में गैर-तार्किक, निरर्थक, अनुपयोगी बातों और गतिविधियों का महत्व को समझना होगा। तभी हम बच्चों के वास्तविक सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित कर पाएगे।

सादर,
डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया
संपर्क - 09889994099, swatantra02@gmail.com


Saturday, April 29, 2017

अंतहीन.........क्या ? क्यों ? कहाँ ? कैसे ?

डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया

शिक्षा संबंधी सभी सिद्धांत, प्रक्रियाएं, प्रणालियाँ, विचार, दस्तावेज़ आदि-आदि एक बात पर प्रमुखता से ध्यान इंगित करते हुये कहते हैं कि, बच्चों के सीखने की प्रक्रिया में शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्य बच्चों में विवेचनात्मक/तार्किक चिंतन का विकास करना है। ताकि बच्चे सिर्फ रटकर सूचनाएँ एकत्रित न करें बल्कि वह विषयों व समाज की घटनाओं के प्रति तार्किक रूप से अपनी समझ विकसित करते हुये ज्ञान निर्माण कि प्रक्रिया में सहभागी हो सकें।
पिछले कई वर्षों से शिक्षा जगत में कार्य करते हुये, बच्चे के सीखने संबंधी सिद्धांतों, विचारों (पियाजे, चौम्स्की, जॉन हाल्ट, वायगोट्स्की, एरिक एरिक्सन) का अध्ययन-अध्यापन कर रहा हूँ। वर्तमान में सभी शैक्षिक सिद्धांतों, शोध एवं दस्तावेजों का सार है कि बच्चे समाज में विभिन्न संस्थाओं एवं वयस्कों से अंतःक्रिया करते हुये स्वयं ही ज्ञान का सृजन करते हैं। सिर्फ घर, परिवार एवं स्कूल में उनकी जिज्ञासा को प्रोत्साहित करते हुये सीखने हेतु अनुकूल वातावरण की  आवश्यकता होती है।
पिछले कुछ महीनों से अपने ढाई वर्ष के बच्चे कि गतिविधियों का अवलोकन करते हुये, इन शैक्षिक सिद्धांतों और बच्चों के सीखने कि प्रक्रिया को व्यावहारिक रूप में अनुभव करने का अवसर मिल रहा है, जिससे कई और बातें स्पष्ट हो रही हैं, जो शैक्षिक चर्चाओं और मंथनों आदि से भी समझ आना मुश्किल होती हैं। 2 से 4 वर्ष की उम्र वह समय होता है जब बच्चे स्पष्ट रूप से बोलना, अभिव्यक्त करना, नए शब्दों के साथ कुछ वाक्यों को गढ़ना प्रारम्भ कर रहे होते हैं। बाल्यावस्था का यह समय जिज्ञासा का चरमकाल भी कहा जा सकता है। क्योंकि इस समय बच्चा अपने आस पास की सभी सजीवों एवं निर्जीवों के प्रति कोतूहल और उत्सुकता से जानना चाहता है।
मेरे बच्चे के जागने के साथ ही उसके क्या....? क्यों...? कहाँ...? कैसे...? जाग जाते हैं, और रात्रि में उसके सोने तक निरंतर वह उन्हें अपने साथ ही रखता है। इस समय उसके पास हजारों क्या....? क्यों...? कहाँ...? कैसे...? हैं। जो शायद उसके सीखने समझने और व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया के औज़ार हैं।
समाजीकरण और बच्चे के विकास का यह अति महत्वपूर्ण समय है, जब बच्चे की जिज्ञासा, उसके प्रश्नों, उसकी बातों को आदर और कोमलता से प्रोत्साहित करने की आवश्यकता होती है। लेकिन मेरा (हो सकता है आपका भी) जिज्ञासा के इस चरमकाल का सामाजिक/व्यावहारिक अनुभव तो कुछ और ही है। इस समय घर और स्कूल उसकी सहज, मौलिक सीखने जानने की प्रक्रिया को जाने-अनजाने वाधित कर रहे होते हैं। क्योंकि वयस्कों की दुनिया के पास धैर्य और विनम्रता से बच्चों के अंतहीन प्रश्न और बातों को सुनने के लिए समय ही नहीं है, और अगर समय है भी तो यह अंतहीन प्रश्न और बातों की प्रक्रिया उन्हें निरर्थक सी लगती हैं।
आधुनिक काल में बच्चों के सीखने एवं ज्ञान अर्जन हेतु हम स्कूल और शिक्षक को ही सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। समाज और परिवार में यह सामान्य मान्यता है कि घर में रहने वाले 2 से 3 वर्ष के बच्चे जो भाषा बोल रहें हैं, जो प्रश्न पूछ रहे हैं, जो तर्क कर रहे हैं, वयस्कों के व्यवहार का अनुकरण करके जिस व्यक्तित्व को आत्मसात कर रहे हैं, वह सब खेल है, और सही एवं वास्तविक शिक्षा व सीखना तो स्कूल जाने पर ही प्रारम्भ होगा। जबकि हकीकत कुछ और ही है, स्कूल जाने के पूर्व बच्चा बहुत कुछ भाषा, सांस्कृतिक तत्व, व्यवहार आदि सीख चुका होता है। मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार 4-5 वर्ष तक आते-आते मानव के व्यक्तिव का बहुत कुछ निर्धारण भी हो जाता है।
समाजीकरण, व्यक्तित्व निर्धारण और सीखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण समय में जब बच्चों को वयस्कों द्वारा उनके प्रति स्नेह, प्रेम, धैर्य, आदर और प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। तब इस समयावधि में ही परिवार, समाज और स्कूल के वयस्क बच्चों के साथ सबसे ज्यादा असहिष्णु बर्ताव करते हैं। शिक्षा के दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा के समाजशास्त्र में जिन शैक्षिक एवं सामाजिक मूल्यों (सहिष्णुता, प्रेम, धैर्य, तार्किकता, वैज्ञानिक चेतना, सहयोग, लोकतान्त्रिक मूल्य आदि) की बात की जाती है। उसका व्यावहारिक रूप बच्चे शायद ही अपने प्रारम्भिक काल में घर और स्कूल में वयस्कों द्वारा देखते हैं। फलस्वरूप बच्चे अपने आसपास वयस्कों के इस व्यवहार को ही बच्चे वास्तविक मानकर अपने व्यक्तित्व में समाहित कर लेते हैं।
जब बच्चा देखता है कि उसके प्रश्नों का जवाब नहीं दिया जाता है। तो उसे लगता है कि प्रश्न पूछना कोई अस्वाभाविक प्रक्रिया है और फिर धीरे-धीरे वह प्रश्न पूंछना ही बंद कर देता है, यह स्वभाव उसके साथ वयस्क और वृद्ध होने तक उसके साथ ही रहता है।
इस तथ्य को हमारे समाज और संस्कृति में महसूस किया जा सकता है। समाज में वयस्क भी अपने आसपास और जीवन से जुड़ी बातों, मुद्दों, राजनीति, धर्म, सामाजिक असमानता आदि पर प्रश्न नहीं पूछते है। क्योंकि बचपन में जिस पूछने की स्वाभाविक और सहज प्रक्रिया को रोका गया उससे ही समाज में मौन की संस्कृति (कल्चर ऑफ साइलेन्स) उत्पन्न होता है।   
"बच्चों की आवाज व अनुभवों को कक्षा में अभिव्यक्ति नहीं मिलती। प्रायः केवल शिक्षक का स्वर ही सुनाई देता है। बच्चे केवल अध्यापक के सवालों का जवाब देने के लिए या अध्यापक के शब्दों को दोहराने के लिए ही बोलते हैं। कक्षा में वे शायद ही कभी स्वयं कुछ करके देख पाते हैं। उन्हें पहल करने के अवसर भी नहीं मिलते हैं। किताबी ज्ञान को दोहराने की क्षमता के विकास के बजाए पाठ्यचर्या बच्चों को इतना सक्षम बनाए कि वे अपनी आवाज ढूँढ सकें, अपनी उत्सुकता का पोषण कर सकें, स्वयं करें, सवाल पूछें, जाँचें-परखें और अपने अनुभवों को स्कूली ज्ञान के साथ जोड़ सकें।" (एनसीएफ़ 2005) 
बच्चों के सीखने के इस स्वर्णिम काल के प्रति घर, स्कूल एवं समाज में वयस्कों द्वारा इस तरह के गैरजिम्मेवार रवैये का क्या कारण हो सकता है। तो एक कारण हो सकता है कि, वयस्क बच्चों के सहज, मौलिक प्रश्न और बातों को उनके सीखने कि प्रक्रिया में ज्यादा महत्वपूर्ण नही मानते हैं। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि वास्तव में वयस्कों के पास बच्चों के क्या....? क्यों...? कहाँ...? कैसे...? आदि का ऐसा उत्तर ही नहीं है, जो बच्चों के इस स्तर पर उनकी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करते हुये (हालांकि प्रयास असफल ही होगा) उनकी सीखने कि प्रक्रिया को प्रोत्साहित करे। मैंने अपने और बच्चे के बीच होने वाले संवाद में अक्सर यह अनुभव किया है कि उसके 3 से 4 क्या? और क्यों? के बाद मेरे पास एक संतुलित जबाब उपलब्ध नहीं होता है जो तुरंत उसे दिया जा सके। बच्चों के साथ संवाद के समय ऐसी परिस्थिति में सामान्यतः वयस्कों द्वारा तीन निर्णय लिए जाते हैं.....
·         पहला वयस्क बच्चों को 3-4 क्या? और क्यों? तक पहुंचने से पहले ही रोक देते है।
·         दूसरा 3-4 क्या? और क्यों? के बाद बच्चे को डाटकर, क्रोध से या बड़े होने का भय दिखाकर बच्चे को शांत कर देते हैं।
·         तीसरा कुछ विनम्र वयस्क चालाकी से उसके प्रश्न या बात को किसी और बात से बदलने का प्रयास करते हैं।
जबकि वयस्कों का यह सामाजिक और नैतिक दायित्व है कि बच्चों के प्रश्नों का वास्तविक और तार्किक जबाब उन्हें दें। लेकिन जबाब के वास्तविक और तार्किक होने के साथ यह भी अति आवश्यक है कि वह जबाब बच्चे के स्तर पर उसे समझने में सहायक भी होना चाहिए।
"बच्चे उसी वातावरण में सीख सकते हैं जहाँ उन्हें लगे कि उन्हें महत्वपूर्ण माना जा रहा है। हमारे स्कूल आज भी सभी बच्चों को ऐसा महसूस नहीं करवा पाते। सीखने का आनन्द व संतोष के साथ रिश्ता होने की बजाए भय, अनुशासन व तनाव से संबंध हो तो यह सीखने के लिए अहितकारी होता हैं।" (एनसीएफ़ 2005)
इसलिए आवश्यकता है कि समाज, परिवार और स्कूल में वयस्क बच्चों के इस महत्वपूर्ण समय में उन्हें उनकी सहज और मौलिक प्रक्रियाओं, गतिविधियों को सहिष्णुता, प्रेम, धैर्य और आदर के साथ प्रोत्साहित करें। ताकि समाज जिन शैक्षिक एवं सामाजिक मूल्यों को बच्चों में प्रतिस्थापित करना चाहता है, वह वास्तविक रूप में फलीभूत हो सके।


डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया 

Tuesday, April 19, 2016

चितकबरा सलाम

चितकबरा सलाम

वैसे तो हर शब्द अपने अर्थ में विशिष्ट होता है, पर जब दो शब्द एक दूसरे से संयोजित होते है तो कुछ नया अर्थ उत्पन्न करते हैं। आप चितकबरा और सलाम इन दोनों शब्दों से तो परिचित हैं, किन्तु इनका एकसाथ प्रयोग आपके दिमाग पर थोड़ा ज़ोर डाल रहा होगा, क्योंकि अभी तक आपने समाज में परिवर्तन और विकास हेतु अनेक विचारों पर आधारित कई प्रकार के सलाम सुने हैं, जैसे लाल-सलाम (मार्क्स के विचारों पर आधारित), सफ़ेद-सलाम (गांधी के अहिंसक विचारों पर आधारित), नीला-सलाम (अंबेडकर/दलित  के विचारों पर आधारित), गुलाबी-सलाम (महिला अधिकारों हेतु संघर्षरत), किन्तु चितकबरा सलाम आपके कानों या आंखो से होते हुये मस्तिष्क तक की यात्रा पहली बार ही कर रहा होगा। तो आपको बता दे कि हाँ आप बिलकुल सही हैं। क्योंकि चितकबरा सलाम आज के इस उत्तर आधुनिक युग एक नए विचारों, सोच, दृष्टिकोण, मान्यताओं एवं दर्शन आदि को प्रतिस्थापित करना चाहता है। जो समाज में वांछित परिवर्तन को प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित करेगा।
ऊपर जिन विभिन्न वैचारिक सलाम को बताया है, उनमें से प्रत्येक का अपना एक विशेष महत्व है और समाज को बदलने में इनका विशेष योगदान है। जहां मार्क्स के लाल सलाम ने विश्व के अनेक देशों में सत्ता और समाज परिवर्तन को दिशा दी वही गांधी ने सत्ता और विशेष रूप से समाज निर्माण हेतु एक नवीन अहिंसक सफ़ेद सलाम से परिचित कराया। समाज की संरचना में व्याप्त आंतरिक असमानताओं (जाति आधारित भेदभाव) को बदलने हेतु नीले सलाम ने एक विशेष योगदान दिया है। महिला अधिकारों और नारी सशक्तिकरण की बात को मजबूती से समाज के सामने प्रस्तुत करने वाले गुलाबी सलाम ने महिलाओं को अपने विचार पुरुषो की इस दुनिया में रखने हेतु एक सशक्त वैचारिक शक्ति प्रदान की है।
हम इन सभी विचारों को कमतर आँकने का प्रयास नहीं कर रहे हैं और न ही समाज में परिवर्तन हेतु किए गए इनके योगदान भुला रहे है, किन्तु तार्किक मूल्यांकन करने पर कुछ तथ्य भी सामने आते हैं। जो उपरोक्त विचारधाराओं में कुछ कमियों की ओर इशारा करते हैं।
अंबेडकर के विचारों पर आधारित नीले सलाम (आन्दोलन) ने निसंदेह समाज के वंचित वर्ग को आर्थिक/सामाजिक/राजनैतिक विकास का एक मार्ग उपलब्ध कराया है।  भारत में आज दलित/वंचित वर्ग की विकास में जो कुछ हद तक जो बदलाब आया है, उसमें इस नीले आंदोलन का विशेष योगदान है। किन्तु जब भारतीय समाज का सूक्ष्म विश्लेषण करें, तो ज्ञात होता है कि आज समाज में संवैधानिक प्रावधानों का उपयोग करते हुये समाज में कुछ नीले सवर्ण/सामंत विकसित हो गए हैं। जो समूहिक विकास के सिद्धान्त के स्थान पर व्यक्तिगत सशक्तिकरण कि ओर ज्यादा कार्यरत हैं। ये नीले सवर्ण बिलकुल परंपरागत सवर्णों/सामंतों कि तरह ही व्यवहार करते हैं, बस बात अपने वर्गो के अधिकारों की करते हैं(ताकि समाज के सम्पन्न शक्तिशाली लोगो के साथ मिलकर समुदाय की राजनैतिक शक्ति का सौदा कर सकें)। तो चितकबरा सलाम इस प्रकार के छदम बदलाव की बात नहीं करता बल्कि समाज में वास्तव में समानता और समाजवाद की स्थापना की हेतु कार्य करने की बात करता है।
गुलाबी सलाम ने मुखर रूप से महिलाओं से जुड़े मुद्दों और बातों को मजबूती से समाज के सामने रखने का प्रयास किया है लेकिन इस वैचारिक आंदोलन की मुख्य खामी है, पुरुषवादी सोच द्वारा स्थापित सामाजिक मूल्यों को को ही प्रतिस्थापित करना। समाज में आज भी उन्ही गुणों (भावनविहीनता, तार्किकता, प्रतिस्पर्धा, आदि) एवं कार्यो (नौकरी, राजनीति, घर से बाहर के कार्य) को ज्यादा महत्व दिया जाता है जिनमें शारीरिक बल की आवश्यकता हो या जिन्हें मुख्यता पुरुष कर कर सकते हैं। इसलिए आज समाज में महिलाएं भी ऐसे ही कार्यो को करना चाहती है जिनको पुरुष द्वारा किए जाते हैं। महिलाएं भी सिर्फ उन्ही क्षेत्रों में सहभगिता को सशक्तिकरण मानती है जिनमें पुरुष कार्यरत है। चितकबरा सलाम एक नयी नारीवादी विचारधारा को नारी सशक्तिकरण से जोड़ता है। चितकबरा सलाम उन सभी कार्यो एवं गुणों को समाज में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा प्रदान करना चाहता है जिनको अभी तक गैर महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। इसका मतलब यह नहीं की महिलाएं अन्य क्षेत्रों में सहभागी न हो। पर यदि समाज घरेलू कार्यो, बच्चों की देखभाल जैसे कार्यो को कम महत्वपूर्ण और नौकरी, राजनीति आदि जैसे कार्यो को अधिक महत्वपूर्ण मानता रहेगा, तब एक नए प्रकार का संघर्ष स्त्री-पुरुष के बीच होगा। इससे स्त्री सशक्तिकरण का पैमाना पुरुष द्वारा किये जाने वाले कार्यो में सहभागिता हो जाएगा।
इसके विपरीत चितकबरा सलाम एक ऐसी सामाजिक चेतना विकसित करना चाहता है। जिसमें सभी कार्य और गुण समाज के लिए महत्वपूर्ण माने जाए, खासकर जो महिलाओं द्वारा संपादित किए जाते हैं। अगर हम एक ऐसी चेतना समाज में विकसित कर पाये जिसमें रातभर अपने नवजात शिशु की देखरेख करना, घरेलू कार्य करना, खाना बनाना समाज के अन्य कार्यो से ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य हो। तब हम निसंदेह नारी सशक्तिकरण के नए युग का सूत्रपात करेंगे।
इसी प्रकार सामाजिक बदलाव के दो मुख्य विचारों मार्क्सवादी और गांधीवादी पर भी कुछ चितकबरा सलाम एक नया दृष्टिकोण प्रतिस्थापित करना चाहता है। अपनी अनेक विशेषताओं और व्यापक दर्शन के बाद भी इन दो विचारधाराओं में एक छोटी सी वैचारिक कमी है, जिसके कारण इन दो विचारधाराओं पर आधारित समाज विश्व में कही भी नहीं बन पाया। मार्क्सवादी विचारधारा सामाजिक बदलाब हेतु सक्रिय संघर्ष को प्रोत्साहित करती है और बदलाव हेतु इसी को एक मात्र रास्ता बताती है। समाज की सत्ता हो या संरचना दोनों में हिंसक और अहिंसक दोनों रास्तो से परिवर्तन किया जा सकता है पर जब समाज के पुनर्निर्माण की बात आती है तो तब समाज में संघर्ष की जगह सहयोग, आपसी सहमति, समंजन की आवश्यकता होती है, और इसी स्थान पर मार्क्सवादी विचारधारा कमजोर हो जाती है। क्योंकि लाल सलाम संघर्ष को तो महत्वपूर्ण मानता है, किन्तु शांति, सहयोग, सहभागिता अहिंसा के महत्व और आवश्यकता पर उतना गंभीर नहीं है। इसके ठीक विपरीत गांधीवाद अहिंसा को कुछ ज्यादा ही महिमामंडित करता है। समाज के निर्माण एवं सतत विकास हेतु निश्चित ही अहिंसा, शांति और आपसी भाईचारा एक मात्र रास्ता है। पर जब समाज की संरचना में एक समय बाद व्यापक बदलाव की आवश्यकता हो तो संघर्ष और यथोचित हिंसा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
समाज की प्रक्रियायाओ को संचालित करने के लिए संघर्ष और शांति, हिंसा और अहिंसा दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। चितकबरा सलाम मार्क्सवाद के हिंसा/संघर्ष और गांधीवाद के शांति/अहिंसा के अतिरेक को सम्यकता (यथोचित) में समाहित करने को प्रोत्साहित करता है, और चितकबरा सलाम समाज की दो महत्वपूर्ण अवधारनाओं को संयोजित करते हुये एक नए दृष्टिकोण को प्रतिस्थापित करना चाहता है। जब समाज में व्यापक/मूलभूत बदलाब और किसी मुद्दे पर शक्ति की जरूरत है, तो चितकबरा सलाम चट्टान से भी शक्त होने वाली विचारधारा है, और जब समाज में निर्माण और शांति की आवश्यकता है तो यह विचारधारा पक्षियों के पंख से भी कोमल हैं।
अब अंत में चितकबरा सलाम के शाब्दिक अर्थ पर भी कुछ विश्लेषण कर लेते हैं। तो जब हम कई रंगो को एक साथ प्रयोग किसी चित्र या जगह पर करे, तब लोग ऐसे रंगो के संयोजन को देखकर स्थानीय भाषा में चितकबरा कहते हैं। चूकि यह नयी वैचारिक यात्रा कई विचारधाराओं की विशेषताओं का संयोजन और कमियों को दूर करते हुये नए समाज की और परिवर्तन की बात करती है, जो सिद्धान्त से ज्यादा  व्यवहारिक पक्ष को महत्वपूर्ण मानती है।

इसलिए कई वैचारिक रंगो को समाहित किए हुये यह वैचारिक आंदोलन चितकबरा सलाम है...................

Wednesday, January 25, 2012



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