"व्यक्तित्व निर्माण और सीखने की
प्रक्रिया में गैर-तार्किक, निरर्थक, अनुपयोगी बातों एवं गतिविधियों का महत्व"
डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया
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क्यों फालतू के काम कर रहे हो?
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ज्यादा मत बोला करे?
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ये क्या बकबास है?
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बेमतलब/फ़िजूल कि बातें मत किया करो?
अक्सर वयस्कों द्वारा बच्चों को डाटते हुये इन
वाक्यो को सुना जा सकता है। मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य का व्यवहार और जीवन तर्क
और भावना दोनों का समिश्रण है, मनुष्य के लिए तर्क और भावना
दोनों की ही आवश्यकता है। समाजीकरण और व्यक्तित्व निर्धारण में सार्थक के साथ
निरर्थक, उपयोगी के साथ अनुपयोगी सभी प्रक्रियाओं एवं
गतिविधियों कि आवश्यकता होती है। बच्चों के 0-5 वर्ष प्रारम्भिक दौर को देखे तो हम
समझ सकते हैं कि बच्चों का अधिकांश समय गैर-तार्किक एवं अनुपयोगी कार्यो में
व्यतीत होता है। बच्चों की यह गैर-तार्किक, अनुपयोगी गतिविधियां
ही उनके सीखने की प्रक्रिया को संचालित करती हैं।
बच्चे की प्रारम्भिक भाषा गैर-तार्किक और बेतुक
ध्वनियों और आवाजों से ही प्रारम्भ होती है, जो आगे चलकर एक
स्पष्ट भाषा का रूप ले लेती है। बच्चों की खेल गतिविधियां सफलता या किसी लक्ष्य की
प्राप्ति हेतु ना होकर सिर्फ आनंदित होने के लिए होती हैं। अपने आस-पास बच्चों को
स्वतंत्र रूप से व्यवहार करते हुये देखे, तो बच्चे सामान्य
रूप से बेतुकी आवाजों को निकालते हुये चिल्ला रहे होते हैं। खेलते हुये वह बेतरतीब
तरीके से कूदते हुये दौड़ रहे होते हैं। बच्चों की इन गैर-तार्किक और बेतुकी बातों
और गतिविधियों को तर्क और अनुशासन के आधार पर वयस्कों को समझ पाना अक्सर ही कठिन
होता है।
निराशा, असफलता और तनाव
तीव्र गति से दौड़ते आज के उत्तर-आधुनिक समाज के कुछ समान्य शब्द हैं। वैसे तो इन
शब्दों से मानव अपने जीवन काल में कई बार आमना-सामना करता ही रहता है पर आज के
युवा खासकर बच्चे और किशोर तनाव का कुछ ज्यादा ही सामना कर रहे हैं।
बच्चों एवं किशोरावस्था में व्याप्त इस
बैचेनी और तनाव का जब सूक्ष्म विश्लेषण करे तब समाज की दो प्रमुख सामाजिक संस्थाएँ
इसके लिए उत्तरदायी समझ आती हैं। परिवार और स्कूल दो प्रमुख सामाजिक संस्थाएँ हैं
जो बच्चों के समाजीकरण और ज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया को मुख्य रूप से संचालित
करती हैं। इन दोनों संस्थाओं की प्रक्रियाओ और गतिविधियों देखे तो हम जान सकते हैं
कि आज स्कूल और परिवार दोनों ने अपने आप को इस प्रकार संरचित कर लिया है, जिसमें बच्चों/किशोरों के लिए व्यक्तिगत रूचि,
स्वतन्त्रता, और मनोगत रचनात्मकता के अवसर बहुत कम ही मिल
पाते हैं। स्कूल के पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम और नियमों के द्वारा बच्चे 6-7 घंटे
रोज व्यतीत करते हैं। स्कूल में होने वाली प्रार्थना से लेकर अंतिम घंटे तक बच्चे
शिक्षक या स्कूल के निर्देशों का पालन कर रहे होते हैं। स्कूल के इन 6-7 घंटो में
मौलिक अभिव्यक्ति, सहभागिता बमुश्किल ही बच्चों को मिल पाती
है।
"बच्चों की आवाज व अनुभवों को कक्षा
में अभिव्यक्ति नहीं मिलती। प्रायः केवल शिक्षक का स्वर ही सुनाई देता है। बच्चे
केवल अध्यापक के सवालों का जवाब देने के लिए या अध्यापक के शब्दों को दोहराने के
लिए ही बोलते हैं। कक्षा में वे शायद ही कभी स्वयं कुछ करके देख पाते हैं। उन्हें
पहल करने के अवसर भी नहीं मिलते हैं। किताबी ज्ञान को दोहराने की क्षमता के विकास
के बजाए पाठ्यचर्या बच्चों को इतना सक्षम बनाए कि वे अपनी आवाज ढूँढ सकें, अपनी उत्सुकता का पोषण कर सकें, स्वयं करें, सवाल पूछें, जाँचें-परखें और अपने अनुभवों को
स्कूली ज्ञान के साथ जोड़ सकें।" (एनसीएफ़ 2005)
फ्रेंच दार्शनिक ‘फूको’ स्कूल
को जेल, फैक्ट्री और अस्पताल के समतुल्य रखते हैं और बताते हैं
कि अनुशासन, शक्ति और सत्ता के
अभ्यास का साधन है जिसमें तरह-तरह के उपकरण सम्मिलित रहते हैं। इनका उद्देश्य ‘विनम्र शरीर’ और
‘आज्ञाकारी चेतना’* का
विकास करना होता है।
कुछ समय पहले तक बच्चे घर आकर स्कूल के इस
अति अनुशासन और तनाव के माहौल को भूल जाते थे, क्योकि घर में वे
अपने मन का व्यवहार करते हुये वे वह सब कर सकते थे जो उन्हें आनंदित करे ऊर्जावान
करे। घर/परिवार स्कूल के अनुशासन और तनाव
को कम करने हेतु एक सेफ़्टी वाल्ब की तरह काम करते थे। पर अति प्रतियोगिता आधारित इस
समय में जहां आर्थिक रूप सफल होना ही अंतिम लक्ष्य है, घर को
भी स्कूल/कालेज के उप केंद्र बना दिया है। अभिभावकों की अंतहीन अपेक्षाएँ बच्चे की
मौलिक अभियक्ति की संभावनाएं समाप्त कर देती हैं। घरों में भी बच्चों को अनुशासित रहते हुये वही सब करने का आदेश
अभिभावकों द्वारा पारित किया जाता है, जो आने वाले समय में
आर्थिक रूप से सफल करा सके। अगर स्कूल और घर की प्रक्रियाओं का सूक्ष्म अवलोकन करे
तो दोनों में एक बड़ी समानता देखने को मिलती है, वह हैं सिर्फ
और सिर्फ सार्थक कार्यो हेतु अति आग्रह। इन स्कूल और अभिभावक आज बच्चों से अपेक्षा
करते हैं की बच्चे सिर्फ ऐसे सार्थक कार्यो और बातों में संलग्न रहे जिनसे उन्हे
भविष्य में सफलता प्राप्त हो सके। स्कूल और घर ने बच्चों को अपने मन के निरर्थक, बेतुके, अनुपयोगी, कार्यो और
खेल गतिविधियों को समाप्त करने पर तुले हुये हैं। बड़ों को लगता है की यह सब जो
बच्चे कर रहे है वह सब अनुपयोगी है और बच्चे समय खराब कर रहे हैं।
"बच्चे
उसी वातावरण में सीख सकते हैं जहाँ उन्हें लगे कि उन्हें महत्वपूर्ण माना जा रहा
है। हमारे स्कूल आज भी सभी बच्चों को ऐसा महसूस नहीं करवा पाते। सीखने का आनन्द व
संतोष के साथ रिश्ता होने की बजाए भय, अनुशासन व तनाव
से संबंध हो तो यह सीखने के लिए अहितकारी होता हैं।" (एनसीएफ़ 2005)
बच्चे क्या अगर वयस्क भी अपने व्यवहार को
स्वःअवलोकित करें, तो जान सकते हैं कि वयस्क भी अपने
दैनिक व्यवहार और गतिविधियों में गैर-तार्किक और अनुपयोगी कार्यो को करते हैं। आधुनिक
मनोविज्ञान के अनुसार मानसिक संतुलन और व्यक्तित्व स्थायित्व हेतु तर्क और अनुशासन
के साथ-साथ गैर-तार्किक, अनुपयोगी कार्यो काभी अपना विशेष
महत्व है। बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को संचालित करते समय स्कूल, अभिभावक, समाज यह भूल जाते हैं, कि अति अनुशासन और अतिसंरचित नियम एवं गतिविधियां नकारात्मक रूप से
व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। इस प्रकार के वातावरण में बच्चे अपनी मौलिक
अभियक्ति को खो देते है, और उनकी प्रश्न करने, जिज्ञासा करने की प्रवृति क्षीण होने लगती है।
कुछ दशक पूर्व स्कूलों और अभिभावकों ने
बच्चों को स्वाभाविक खेल-कूद और आनंदित होने के अवसर से दूर करने के लिए एक्टिविटी
क्लास के रूप में एक नयी अवधारणा को जन्म दिया। स्कूल या बच्चों के पेशेवर क्लब
में एक्टिविटी क्लास के अंदर व्यक्तित्व विकास के नाम पर खेल, संगीत, गायन, डांस, चित्रकारी, घुड़सवारी, तैराकी
आदि गतिविधियों को संचालित किया जाता है। वयस्कों को लगता है कि इन एक्टिविटी
क्लास में बच्चों के का मनोरंजन होता है और एक नए कौशल को वह सीख रहे है जिनसे
उनके व्यक्तित्व में निखार होगा।
वयस्क बालमन से संबन्धित एक महत्वपूर्ण बात
भूल जाते है। बच्चे उन्हीं गतिविधिओं को करते हुये आनंदित महसूस करते हैं जिनका
चयन वे अपने द्वारा करते है। बच्चों के स्वाभाविक चयन की बजाय वयस्कों/स्कूल द्वारा
दी गयी खेल या अन्य गतिविधि बच्चों को एक पाठ्य कक्षा की भांति लगती है। बिना मन
के तैराकी, संगीत या खेल गतिविधि उन्हे गणित या विज्ञान की
क्लास की भांति अरुचिकर ही लगती है।
सीखने के प्रारम्भिक 5-7 वर्षो में बच्चे केवल
उन्हीं गतिविधियों में पूर्णता से सहभागी हो पाते हैं, जिनमें उन्हें आनंद प्राप्त होता है। बच्चे किसी भी कार्य को उपयोगी/लाभकारी
होने के आधार पर नहीं करते हैं, बल्कि बच्चों के किसी कार्य, गतिविधि या खेल को चुनने का एकमात्र आधार उन्हें प्राप्त होने वाला आनंद होता
है। अगर बच्चों को अनुशासन, भय से किसी भी प्रकार की गतिविधि में बिना उनके अन्तर्मन से सम्मिलित किया
जाता है, तब सीखने प्रक्रिया तो बाधित होती ही बच्चों के व्यक्तित्व
पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
यदि अभिभावक और स्कूल बिना तनाव, अवसाद या दमन के समाजीकरण और ज्ञान अर्जित करने की प्रक्रिया को सम्पन्न करना
चाहते हैं, तब उन्हे घर एवं स्कूल में इस अति-संरचित, अति-अनुशासित, अति-सार्थक आग्रही व्यवस्था को परिवर्तित
करना होगा। बच्चों को शिक्षण प्रक्रिया एवं घर में ऐसे अवसर उपलब्ध कराने होंगे, जिनमें बच्चे अपनी भावनाओं, इच्छाओं को मौलिक रूप से
अभिव्यक्त कर पाएँ। विभिन्न शोध से यह ज्ञात हुआ है कि बच्चे हो या वयस्क तभी अपनी
उच्च क्षमताओं को प्रदर्शित कर पाते हैं, जब उन्हें कार्य करने
हेतु या सीखने हेतु ऐसा वातावरण उपलब्ध कराया जाता है, जिसमें
वे मौलिक रूप से अपनी भावनाओं, इच्छाओं, विचारों, दृष्टिकोण आदि को प्रदर्शित कर पाते हैं।
स्कूल
की पाठ्यचर्या को बनाते समय विभिन्न विषयों के कक्षाओं के साथ-साथ बच्चों की मौलिक
अभिव्यक्ति हेतु अनिवार्य रूप में विशेष समय उपलब्ध कराना होगा। जिस प्रकार संसद की
कार्यवाही में एक शून्य काल को सम्मिलित किया गया है। उसी प्रकार स्कूल के दिन भर की
समय-सारिणी में एक कक्षा शून्य कक्षा/काल घोषित किया जाए, जिसमें बच्चे अपने उन सभी सभी बेतुके, बेमतलब मौलिक प्रश्न पूछ पाये, समुंदर की लहरों की भांति
हर क्षण उत्पन्न होने वाली अपनी अंतहीन जिज्ञासाओं को पूरा कर पाए।
स्कूल
की इस शून्य-कक्षा में बच्चों को चिल्लाने, बोलने, नाचने सहित वह सभी अतार्किक बातों को करने की छूट होनी चाहिए, जिनको वह समान्य विषयगत कक्षाओं और स्कूल की दिनचर्या में नहीं कर पाते हैं।
स्कूल के साथ ही साथ अभिभावकों को भी घर पर ऐसे अवसर उपलब्ध कराने होंगे जिनमें बच्चे
अपनी मौलिक अभिव्यक्ति का प्रदर्शन कर सके। घर को पुनः उस सेफ़्टी वाल्ब की भांति कार्य
करना होगा जिसमें बच्चे वाह्य समाज के द्वारा और शैक्षिक प्रक्रिया से उत्पन्न तनाव
को भूल कुछ कम कर सके।
आज
समाज, स्कूल और अभिभावकों का यह अनिवार्य दायित्व है कि बच्चों को तनाव, अवसाद आदि से बचाने हेतु घर और स्कूल की इस अति-संरचित, अति-अनुशासित, अति-सार्थक आग्रही व्यवस्था में कुछ समय
बच्चों को मौलिक अभिव्यक्ति हेतु प्रदान करना होगा। व्यक्तित्व निर्माण और सीखने
की प्रक्रिया में तार्किक, अनुशासित और व्यवस्थित प्रक्रियाओंएवं
बातों के साथ-साथ जीवन में गैर-तार्किक, निरर्थक, अनुपयोगी बातों और गतिविधियों का महत्व को समझना होगा। तभी हम बच्चों के वास्तविक
सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित कर पाएगे।
सादर,
डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया
संपर्क - 09889994099, swatantra02@gmail.com