Wednesday, April 1, 2020

हमें डर नहीं लगता...


हाँ हमें डर नहीं लगता...
अगर डर लगता तो आपके शहर में जहां हम रहते हैं, वहाँ इंसान तो नहीं रह सकतें।
अगर डर लगता तो जिन कारखानों, जिन जगहों में,
हम जो काम करते हैं, वह कभी न कर पाते।
आपकी कोठियों में जो सीसा चमकता है, खिड़कियों, टेबिल और गुलदस्तानों में,
काम करते हुये वही सीसा तो रोज हम अपनी साँसों में भरते है,
शाम को पेट की भूख मिटाने के लिए।
हाँ हमें डर नहीं लगता...
अगर डरते तो इन ऊंची-ऊंची इमारतों में, पुलों पर, सड़कों पर
बिना सुरक्षा के भी कैसे हम काम करते।
बैंक में पैसा नहीं हो, घर में खाना नहीं हो तब भी हमें डर नहीं लगता।
हमें तो भूख लगती है, और भूख डर से नहीं पसीना बहाकर काम करने से मिटती है।
हाँ हमें डर नहीं लगता...
आपने कह रहे हैं ये कौन हैं, जो सैकडों किमी॰ सर पे बोझ लेकर पैदल ही चल पड़े।  
सच में.. हमें नहीं पता कितना बोझ लेकर और कितनी दूर पैदल जाना चाहिए।
क्योंकि हम तो पैदा होते ही गरीबी का बोझा लेकर ही चलने लगते हैं। 
और हम तो पीढ़ियों से चल रहें हैं इसलिए पता ही नहीं, पैदल चलने में थक जाते हैं।  
इसलिए हाँ हमें डर नहीं लगता...
हम किन्ही सपनों को पूरा करने या कुछ पाने के लिए नहीं,
हम तो सिर्फ भूख मिटाने शहर आए थे,
और अब भूख के कारण ही लौट कर जा रहें हैं।

सादर,
डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया

गाँव तू फिर याद आया…



गाँव तू फिर बहुत याद आया है....
अभी-अभी तो मैं तुझे बहुत बुरा-भला कहके, तुझसे मुंह फेरकर शहर आया था।
मुझे याद है, जाते हुये मैंने ही तुझसे अपने हाथ को छुड़ाया था।
हाँ ये भी मुझे याद है जाते हुए मैं नहीं तू उदास था।
सच कहूँ जब से आया हूँ शहर ने हाथ लगाना तो छोड़, आँख भर देखा भी नहीं।
गाँव तू फिर बहुत याद आया है....
मुझे याद है कितनी भी बड़ी परेशानी हो तू कभी किसी को जाने के लिए नहीं कहता।
तू कभी अपनों को ऐसा अकेला बेबस सड़कों पर कभी नहीं छोड़ता,
तू हमेशा यही तो कहता है मत चिंता कर, यह समय भी चला जाएगा।
गाँव तू फिर बहुत याद आया है....
तू उस माँ की तरह ही तो है, जिसे आखिर सांस तक बच्चों की ही फिकर बनी रहती है।
लाख परेशानी हो, तेरे बस में हो या न हो,
हमारी कमियों के बाद भी तू हमें छोड़ता नहीं,
और ज़िंदगी लुटाने के बाद भी शहर है कि अपनाता ही नहीं। 
गाँव तू फिर बहुत याद आया है....

सादर,
डॉ॰ स्वतंत्र रिछारिया